प्रेम कविताएँ

मेरी व्यथा
चुप अधरों में बन्द शब्दों के भेद को कैसे पढ़ेगा
मेरी व्यथा क्या समझेगा जो गुज़रा न हो उस ताप से

सुबह सिरहाने बैठ एक किरण चुनती है नींद नयन से
प्रतिदिन शाम की बाती भी जलती है चुपचाप नियम से
उस सुबह से शाम तक के वही पुराने रंग ढंग में
चुलबुलापन देख कर भी ढल गया सूरज चुपचाप से
मेरी व्यथा क्या समझेगा जो गुज़रा न हो उस ताप से

कुहरे की एक झीनी चूनर ने ढका ज्यों पर्वत का बदन
चंदा के मुख को चूम बदरी चली संग संग अपने सजन
खेल ऐसे देख दबे पांव आयी लाज छू गयी मेरा भी तन
आंखों के बिछौने में नींद लडती रही अपने आप से
मेरी व्यथा क्या समझेगा जो गुज़रा न हो उस ताप से

चंचलता और अकुलाहट में फंसा मन कर रहा हाहाकार
एक निराकार स्वप्न को हृदय ने रूप दे दिया है साकार
सही गलत के ताने बाने में उलझ रह गया अहंकार
प्रेम सुधा में विष घुलेगा जब मन हो नहाया पाप से
मेरी व्यथा क्या समझेगा जो गुज़रा न हो उस ताप से



8 टिप्‍पणियां:

  1. मुकेश जी

    माफ किजियेंगा , मैं आपके ब्ल्पोग पर नहीं आ पाया .

    आपकी कविता का क्या कहने , शृंगार रस से भरपूर है और जीवन को आमंत्रण देती हुई है . और भी कविताएं पढ़ी , बहुत सुन्दर है , आपके बात को प्रस्तुत करने का अंदाज़ ही जुदा है .

    अब नियमित रूप से आपके ब्लॉग पर आते रहूँगा .

    आपका विजय

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  2. आपकी रचनाए बहुत सुंदर लगी

    आप मेरे दूसरे ब्लॉग पर भी अपनी प्रतिक्रिया देवे
    हतत्प://वानगायडिनेश.ब्लॉगस्पोट.इन/
    http://vangaydinesh.blogspot.in/

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  3. आंखों के बिछौने में नींद लडती रही अपने आप से
    मेरी व्यथा क्या समझेगा जो गुज़रा न हो उस ताप से

    वाह कितना सुंदर उपमान । कविता भी समूची सुंदर ।

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  4. sundar Rachna ke liye Badhai...
    http://ehsaasmere.blogspot.in/2013/01/blog-post.html

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  5. jo gujra ho taap se usee vyatha samjhana nahi padta..aur jo nahi gujra use samjhane se koi phayda nahi..uttam rachna..badhai

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  6. मेरी व्यथा क्या समझेगा जो गुज़रा न हो उस ताप से..bilkul sahi bat ...jaake per n phiti biwai wo kya jane pir praai ...bahut acchi rachna dinesh jee ....thanks ...

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  7. आपकी यह पोस्ट आज के (१३ अगस्त, २०१३) ब्लॉग बुलेटिन - प्रियेसी पर प्रस्तुत की जा रही है | बधाई

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  8. वाह.......... मजा आ गया , क्या बात है

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